रविवार, 17 जुलाई 2011

बादल छाये


उमड़-उमडकर ढोल बजाएँ

काले काले बादल छाये

सागर का संदेसा लाये

कैसे कैसे रूप सजाये


उजली सी रुई के गोले

पर थोड़े से हो गए मैले

दौड पकड़ खेलें मतवाले

भेष धरे हैं नए निराले


देख हुआ है चुनमुन राजी

नावों में लग जाए बाजी

बिल्लू बंटी अब्दुल काजी

बोलो कौन बनेगा माँझी


बिजली ने बन सखी सहेली

ओढ़ी चूनर नई नवेली

अब महक मेहंदी की फैली

धरती की सज गयी हथेली


देख जलद मेंढक टर्राये

मोर नाच के किसे रिझाये

हलधर के मन को हरखाये

देखो देखो जलधर आये


उमड़-उमडकर ढोल बजाएँ

काले काले बादल छाये

9 टिप्‍पणियां:

  1. वंदना जी उजली उजली रुई के गोले .........वाह वाह कितना सुनर स्वागत है वर्षा ऋतू का सुंदर भावाव्यक्ति बधाई

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  2. वर्षा ऋतु का सुन्दर भावपूर्ण शब्दों से स्वागत अच्छा लगा ..मेरे ब्लांग में आप आई बहुत बहुत धन्यवाद...

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  3. स्वागत का अंदाज बहुत ही प्यारा लगा

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  4. बहुत खुबसूरत ब्लॉग और मेहंदी की महक जैसी रचना - बहुत सुंदर

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  5. सुन्दर बाल रचना ... वर्षा का संदेसा लिए ..

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  6. सुन्दर बोल,मधुर भाव.
    अनुपम अभिव्यक्ति है आपकी.

    लगता है संगीत सा बज रहा हो कानों में.
    आभार.

    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है.

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  7. रिमझिाम बरसते सावन को सार्थक करती संुदर और मनमोहक कविता । बाकी सभी बाल गीतों में बालमन के साथ साथ सभी के मन को सुख पहुंचाने का सराहनीय प्रयास।

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